बच्चों में किताबों के प्रति कम होता सम्मोहन

संपादकीय

सोशल मीडिया के कोलाहल के बीच नई पीढ़ी के बच्चों में किताबों के प्रति कम होता सम्मोहन गंभीर चिंता का विषय है। ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूली पाठ्यक्रम की पुस्तकों तक सीमित होते चले गये हैं। बस्ते का बोझ उन्हें विभिन्न विषयों की पुस्तकें पढ़ने का अवसर कम देता है। वहीं शिक्षकों ने भी यह जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई कि वे नयी पीढ़ी को विषय से अतिरिक्त पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर सकें। विडंबना यह भी कि समाज के संपन्न तबके व नीति-नियंताओं की संतानें महंगे पब्लिक स्कूलों की ओर उन्मुख हो गईं। वहां यदि पुस्तकों का रुझान रहा भी है तो विदेशी लेखकों की पुस्तकों को तरजीह दी गई, जिनमें परिवेश विदेश का है, संस्कार विदेश के हैं और जीवनशैली तथा नायक भी विदेश के हैं। हो सकता है आने वाले वक्त में किसी पब्लिक स्कूल के विद्यार्थी का प्रश्न होगा कि प्रेमचंद कौन हैं? ऑनलाइन गेम्स और आभासी दुनिया के प्रतिनिधि सोशल मीडिया में सेल्फी संस्कृति व कृत्रिम लोक व्यवहार में डूबी पीढ़ी को भारतीय साहित्य व विभिन्न विधाओं की पुस्तकें पढ़ने का वक्त मिलेगा कहना कठिन है। लेकिन फिर भी हमारी कोशिश होनी चाहिए कि भारतीय माटी और मातृभाषा में रचे गये साहित्य से भी नई पीढ़ी रूबरू हो। इसकी पहल शिक्षकों, अभिभावकों व हमारे नीति-नियंताओं को करनी चाहिए। ऐसे में पढ़ने-लिखने के संस्कार विकसित करने की दिशा में हिमाचल के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर की वह पहल प्रेरक है, जिसमें वे खुद स्कूलों में जाकर बच्चों को पाठ्यक्रम से अलग पुस्तकें भेंट करते हैं और उनमें पढ़ने-लिखने के संस्कार विकसित कर रहे हैं। इनमें वे पुस्तकें शामिल हैं जिनमें देश, समाज और संस्कृति के लिये महान योगदान देने वाले नायकों का जिक्र है। राज्यपाल न केवल पुस्तकें देते हैं बल्कि खुद उनकी प्रतिक्रिया भी आमंत्रित करते हैं। एक छात्र ने उन्हें पत्र लिखकर बताया कि उसे नहीं मालूम था कि पाठ्यक्रम से इतर पुस्तकें भी उन्हें पढ़नी चाहिए।

निस्संदेह, पुस्तकें विद्यार्थियों की दृष्टि को समृद्ध करती हैं। एक पुस्तक में कालखंड व जीवन के घनीभूत अनुभवों का समावेश होता है। पुस्तकें विद्यार्थियों में जहां पढ़ने केसंस्कार विकसित करती हैं, वहीं इनसे भाषायी संस्कारों का भी विकास होता है। उनमें यह सोच विकसित करती हैं कि विषम परिस्थितियों में कैसा व्यवहार करना चाहिए। इससे विद्यार्थी देशकाल की चुनौतियों से भी रूबरू होते हैं। उनकी सोच विकसित होती है और वे आदर्श नागरिक बनने की ओर अग्रसर होते हैं। स्कूली पाठ्यक्रम से उपजी एकरसता तोड़ने का काम भी पुस्तकें करती हैं। इसमें दो राय नहीं है कि हमारे मौजूदा समाज में शिक्षा के मायने बदल गये हैं। एक बेहतर नागरिक के निर्माण की जो भूमिका होती थी, उसकी जगह गलाकाट स्पर्धा और आर्थिक प्राथमिकताओं ने ले ली है। जीवन मूल्यों व आदर्शों का हमारे जीवन में तिरोहित होना कालांतर सामाजिक विद्रूपताओं को जन्म देता है। समाज में हिंसक व्यवहार और अपराधों का बढ़ना भी हमारे जीवन मूल्यों का पराभव ही है। निस्संदेह शिक्षा का लक्ष्य महज अंकों की होड़ ही नहीं है, बल्कि विद्यार्थी में मानवीय मूल्यों व संस्कारों का विकास भी है। देश में बढ़ते यौन और बाल अपराधों में वृद्धि चिंता का विषय है। निस्संदेह देशकाल-परिस्थिति किसी बालमन के भटकाव का प्राथमिक कारण हो सकता है लेकिन वह शिक्षा भी जरूरी है जो बच्चों में विवेक पैदा कर सके। जीवन व्यवहार के मूल्य हर युग में एक जैसे ही होते हैं। हर कालखंड में चरित्र व सद‍्व्यवहार ही प्राथमिक होता है। भारतीय जीवन दर्शन कभी भी भोगवाद का अनुयायी नहीं रहा है। आज पश्चिमी देशों में जो भारतीय प्रतिभाएं अपनी सफलता का परचम लहरा रही हैं, उनके व्यक्तित्व निर्माण में भारतीय जीवन मूल्यों का बड़ा योगदान रहा है। उन्हीं पारिवारिक संस्कारों का आज पश्चिमी समाज भी मुरीद है। उन्हीं पारिवारिक मूल्यों का अनुकरण आज विकसित देशों का समाज कर रहा है। पढ़ने के संस्कार हमारी कई पीढ़ियों के अर्जित अनुभवों को नई पीढ़ी को सौंपते हैं, जो हमें शेष दुनिया में विशिष्ट बनाते हैं।

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