शिक्षा संस्थानों में बढ़ी हुई फीस पर बवाल!

संपादकीय

जेएनयू का विवाद बढ़ी हुई फीस को लेकर ही शुरू हुआ था, जो हाल ही उसके कैंपस में हिंसक झड़पों के साथ और भी उग्र हो गया है। पिछले कुछ समय से पूरे देश में कई विश्वविद्यालयों के छात्र फीसवृद्धि को लेकर उत्तेजित हैं। पड़ोसी देश पाकिस्तान तक से इसी प्रकार के विरोध-प्रदर्शनों की खबरें आ रही हैं। शासक वर्ग की ओर से इसके प्रति या तो उदासीनता दिखाई जा रही है या फिर इसे राजनीतिक रंग देकर खारिज करने की कोशिश की जा रही है। विपक्षी दल भी इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ नहीं कर रहे हैं और न ही देश के अन्य युवा और जन-साधारण इस प्रश्न पर बड़ी संख्या में लामबंद हो रहे हैं। बल्कि युवाओं का एक बड़ा हिस्सा दिग्भ्रम का शिकार होकर उल्टे ऐसे आंदोलनों का मजाक बना रहा है। भारत जैसे देश में सस्ती या निःशुल्क शिक्षा जैसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दे पर जनसाधारण की यह उदासीनता चौंकाने वाली हो सकती है।

शिक्षा के दार्शनिक पक्षों पर चर्चा करना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है, क्योंकि कई दार्शनिकों का तो यह भी मत रहा है कि शिक्षा ही मनुष्य की नैसर्गिकता और सहजता को समाप्त करने के लिए उत्तरदायी रही है, लेकिन आज जिस तरह के समाज में हम रह रहे हैं उसमें शिक्षा एक सामाजिक और सांस्कृतिक पूंजी का रूप ले चुकी है। यह सभ्य समाज में मानवीय गरिमा और नागरिकता की जिम्मेदारियों के साथ जीने के लिए एक अनिवार्य तत्व और शर्त बन चुकी है।

Back to Top